जानवरों पर टेस्ट नहीं
२३ अप्रैल २०१४मां की कोख में भी शिशु लगातार खतरनाक रसायनों का शिकार बन रहा है. डायॉक्सीन, कीटनाशक, पारा और आर्सेनिक, रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली चीजों तक पहुंच ही जाते हैं. दिमागी विकास के लिए घातक रसायनों का पता मासूम जानवरों पर टेस्ट कर देखा जाता है. लेकिन इसके बावजूद यह पता नहीं कि मानव मस्तिष्क पर इनका वाकई कैसा असर होगा.
हनोवर के वेटनरी कॉलेज में वैज्ञानिकों की टीम ने कई स्तरों वाला एक सेल टेस्ट विकसित किया है. इंसानी तंत्रिका की कोशिकाओं पर रसायनों का परीक्षण कर वैज्ञानिक हमारे मस्तिष्क पर इनका असर जानने की कोशिश कर रहे हैं, जानवरों की जान दांव पर लगाए बिना.
रिसर्च में जुटे हनोवर वेटनरी कॉलजे के प्रोफेसर गेर्ड बिकर के मुताबिक, "जानवरों पर टेस्ट नहीं करने का सबसे बड़ा फायदा आर्थिक है, क्योंकि जानवरों को रखने पर कोई खर्च नहीं करना पड़ता. फिर एक नैतिक पहलू भी है, कि आप इन जानवरों को जहर नहीं दे रहे. उसके बाद उन्हें अकसर एनैलिसिस के लिए मारना भी पड़ता है."
इंसानी कोशिशकाओं पर टेस्ट
इसके लिए इंसानी कोशिकाओं में बदलाव कर उन्हें एक पेट्रिडिश में डाला जाता है जहां वह तंत्रिका कोशिकाओं यानी न्यूरॉन में बदलती हैं. बहुत से टेस्टों को इस तरह से आयोजित किया गया है ताकि वह दिमाग के विकास के स्तरों को दिखायें. जैसे कोशिकाओं का विभाजन या उनका एक से दूसरी जगह जाना, उनके प्रक्षेपणों यानी ऐक्सॉन्स का उगना जिससे अंत में एक क्रियाशील तंत्रिका तंत्र बनता है.
कौन सा तत्व बढ़ती तंत्रिकाओं को नुकसान पहुंचा सकता है, यह जानने के लिए वैज्ञानिक सेल कल्चर के विकास के दौरान अलग अलग स्तरों पर जहरीले रसायन डालते हैं. इससे पता चलता है कि क्या यह केमिकल मस्तिष्क के अंदर कोशिकाओं के हिलने डुलने को रोकता है या फिर पूरी तरह विकसित कोशिकाओं के जुड़ने में दिक्कत पैदा करता है. अगर जहर की मात्रा ज्यादा हो तो कोशिकाएं मर जाती हैं.
बच्चों को ज्यादा खतरा
बड़ों के मुकाबले बच्चों के दिमाग में बढ़ते न्यूरॉन को जहरीले रसायनों से ज्यादा खतरा है. इस अंतर को समझाने के लिए वैज्ञानिक 1950 के दशक के एक रासायनिक हादसे के बाद की तस्वीर दिखाते हैं. प्रोफेसर बिकर पता लगा चुके हैं कि पारे जैसे रसायन से बच्चे के विकास में क्या दिक्कतें आ सकती हैं जबकि एक वयस्क में रसायन की इस मात्रा का शुरुआत में तो असर दिखता ही नहीं है.
सालों तक चले शोध से पता चलता है कि जहरीले रसायनों की मात्रा कम का विकसित तंत्रिका की कोशिकाओं पर असर कम होता है. लेकिन शिशुओं के लिए यह घातक है. इससे उनकी दिमागी कोशिकाओं को तंत्रिका कोशिका में बदलने का मौका नहीं मिलता. टेस्ट के नतीजों को कंप्यूटर पर दिखाते हुए बिकर कहते हैं, "इससे पता चलता है कि जहरीले रसायन की एक खास मात्रा से शिशु में कम न्यूरॉन पैदा होते हैं. और इसका मतलब है कि मस्तिष्क के पूरे विकसित हो जाने पर भी जरूरी अंग नहीं होंगे."
अब वैज्ञानिक न्यूरॉन के प्रक्षेपणों यानी ऐक्सॉन्स के विकास का अध्ययन करना चाहते हैं. क्या न्यूरॉन की लंबाई से रसायन के जहरीलेपन का पता लगाया जा सकता है? वैज्ञानिकों को शक है कि जहर जितना ज्यादा होगा, न्यूरॉन की लंबाई उतनी कम होगी. सेल कल्चर का एक और फायदा है, "इस प्रक्रिया में अच्छी बात यह है कि हम इंसान की तंत्रिका कोशिकाओं यानी न्यूरॉन के साथ काम कर रहे हैं, यानी हमें किसी अलग जानवर की कोशिकाओं से अंतर के बारे में सोचने की जरूरत नहीं. और हमारे सामने तस्वीर हाजिर है, यानी हम तंत्रिका तंत्र पर जहरीले रसायन का असर सीधे देख सकते हैं."
इस तरह के सेल कल्चर टेस्ट से भविष्य में जल्द पता लग सकेगा कि पर्यावरण में घुले कौन से रसायन हमारी सेहत को नुकसान पहुंचा सकते हैं और बच्चों को मां की कोख में ही खतरा पहुंचा सकते हैं.
रिपोर्टः मार्टिन रीबे/ एमजी
संपादनः ओंकार सिंह जनौटी